Tuesday, 4 March 2014

क्यों खामोश हैं सलाखें

क्यों खामोश हैं सलाखें
जेल! दो अक्षर का यह शब्द अपने आप में ही कितना खामोश लगता है। जेल का नाम सुनते ही हम सभी के जहन में अपराध से घिरी एक दुनिया आने लगती है जहां रहने वाले प्रत्येक कैदी के हाथ किसी न किसी अपराध से रंगे होते हैं। लेकिन हालात के शिकार यह लोग भी हमारी ही तरह कभी एक आम इंसान हुआ करते थे और आज भी वह फिर से एक आम इंसान बनने की चाहत रखते हैं और वे हम सभी से एक सवाल पूछते हैं कि क्या आप सब हम लोगों को जेल से बाहर आने के बाद अपने सभ्य समाज में वो जगह देंगे जिसमें हम अपनी बाकी की बची जिंदगी खुले आसमान के नीचे बिना डर के आजादी व खुशी से बिता सकें? क्या हम जो सपने लेकर जेल से बाहर आयेंगे उनको पूरा करने में आप लोग हमारी मदद करेंगे? पेश है प्रीति पाण्डेय की विशेष रिपोर्ट।

एक कैदी को भले ही  काूनन ने रिहा कर दिया हो  लेकिन समाज में उसे आजीवन कारावास की सजा सुना दी जाती है।  सजा काट चुके एक अपराधी के साथ समाज का ऐसा रवैया रखना कोई बड़ी बात नहीं है ।  जिसने गलती की है उसको उसके किए की सजा तो मिलनी ही चाहिए।  लेकिन जिस गलती के लिए उन्हें एक बार सजा मिल चुकी है उसकी सजा उन्हें आजीवन देने वाले हम और आप कौन होते हैं।
किसी ने कहा है कि अपराध से घृणा करो लेकिन अपराधी से नहीं। एक अपराधी में भी संवेदनाएं होती हैं  वह भी अच्छा इंसान बनकर अपने जीवन में आगे बढ़ सकता है बशर्ते उसके सबसे चुनौतीपूर्ण समय में हम सभी उसका साथ दें।
'तिनका तिनका तिहाड़' किताब महिला कारागार में अपने बुरे समय को काट रही चार लेखिकाओं ने मिलकर लिखी है। हालात की शिकार इन महिलाओं से जो भी अपराध हुआ या नहीं हुआ लेकिन जेल में रहने के बाद उनके जीवन पर कितना घातक असर पड़ता है इस बात का अंदाजा सिर्फ ऐसा व्यक्ति ही लगा सकता है जिसने स्वयं यह परिस्थिति देखी हो।
आपको  अजीब जरूर लगेगा लेकिन यह सत्य है कि तिहाड़ जेल की महिला कारागार में रहने वाली कुछ महिलाओं ने  मिलकर एक किताब लिखी है जिसका नाम है 'तिनका तिनका तिहाड़' यह किताब नहीं इन सभी महिलाओं की सिसकियां हैं जो इन्होंने शब्दों में पिरोकर कागज पर चिपका दी हैं। और इन महिलाओं की इस पहल को अंजाम देने का पूरा-पूरा श्रेय जाता है जानीमानी लेखिका श्रीमति वर्तिका नंदा और डीजी विमला मेहरा जी को।  
रमा चौहान जो 'तिनका तिनका तिहाड़' की पहली लेखिका हैं वह तिहाड़ से जमानत मिलने पर रिहा हो चुकी हैं लेकिन 14 महीने से लगातार बाहर निकलने की जद्दोजहद में लगी रमा को बाहर आकर कैसा लगा आईये जानते हैं स्वयं रमा चौहान से :-

रमा चौहान:-
 मैं12वीं पास हूं और महिला कारागर में जाने से पहले मैं एक कामकाजी महिला थी और अपनी बेटी और माँ के साथ सुकून की जिंदगी जी रही थी।  एक दिन एक ऐसी घटना घटी कि हालात ने मुझे ऐसी जगह भेज दिया जहां जाने के बारे में कोई सपने में भी सोचना पसंद नहीं करता।  मुझे महिला कारागर में जाना पड़ा। जहां मैं 14 महीने रही ।
 जेल में रहकर जेल के बाहर की दुनिया को याद करना खासकर अपने परिवार को वहां रहने वाली सभी महिलाओं के लिए सबसे कमजोर लम्हा होता है और हम सब बाहर निकलने के लिए इतने उतावले रहते हैं जैसे बाहर की दुनिया बाँहें फैलाकर हमारा स्वागत करेगी लेकिन जेल से बाहर आने के बाद असली सजा शुरू होती है। 
मेरे लिए मेरी दुनिया सिर्फ मेरी माँ और बेटी ही हैं ।  चूंकि मैं होस्टल में पली-बड़ी थी इसलिए मुझे जेल का माहोल होस्टल की तरह ही लगा। जहां सब कुछ समय पर और नियम के मुताबिक होता है। मैं जेल में नकली फूल बनाने का काम करती थी, जिसके बदले मुझे मासिक वेतन भी मिलता था जो मेरे अपने खर्चे के लिए तो काफी था।
अन्दर थी तो अपनी लाचारी के चलते मैं अपनी बेटी और माँ के लिए कुछ भी नहीं कर पा रही थी और हर पल यही सोचती थी कि पता नहीं वो लोग कैसे रह रहे होंगे, सोचती थी कि मेरे बाहर आने के बाद उन दोनों की स्थिति ठीक हो जाएगी। और 14 महीने से जमानत मिलने की जद्दोजहद में लगने के बाद आखिरकार मुझे जमानत मिली लेकिन मैं वैसा कुछ भी नहीं कर पाई अपने परिवार के लिए जैसा मैं जेल में रहने के दौरान सोचा करती थी। आज भी सब कुछ पहले सा ही है अगर बदला है तो बस इतना कि मैं अपने परिवार का दर्द अपनी आंखों से देख कर और दुखी हो जाती हूं और अपने आपको कौस लेती हूं।
  बाहर आए मुझे 9 महीने से ज्यादा समय बीत चुका है लेकिन अपनी बेटी और बूढ़ी माँ की देखभाल करने के लिए मेरे पास कोई नौकरी नहीं है। वो सिर्फ इसलिए क्योंकि मेरे माथे पर तिहाड़ का ठप्पा जो लग चुका है।  बाहर निकलने के बाद भी मैं अपनी बूढ़ी माँ और बेटी के लिए कुछ नहीं कर पा रही। समाज का रवैया मेरे लिए पूरी तरह बदल गया है। मेरा अपराध अभी साबित भी नहीं हुआ है लेकिन समाज ने मुझे अभी से अपराधी समझ लिया है।  मेरे जेल जाने के बाद हमारे आस-पास रहने वालों का मेरी माँ और बेटी के प्रति कैसा रवैया होगा इस बात का अंदाजा आप यूं लगा सकते हैं कि मेरी माँ को वहां से घर छोड़कर जाना पड़ा। मेरी अपनी बेटी ने पूरे 14 महीने बाहर से छोले-कुल्चे और नमकीन बिस्कुट से अपना पेट भरा। मेरी बूढ़ी माँ अपने दर्द को किसी से बांट नहीं सकती थी। मुझे जेल में शायद इतनी तगड़ी सजा नहीं मिली जितनी मुझे बाहर आने के बाद मिल रही है। आज मैं हर छोटी से छोटी नौकरी करने को बेबस हूं लेकिन आज हर छोटी नौकरी मेरे आगे और भी छोटी हो गई है।  मैं किसी घर में झाडू-पौछा का काम तक नहीं कर सकती। आखिर कौन देगा मुझे यह काम।  अब मेरा बस एक ही सपना है कि मैंअपनी बेटी को अच्छी शिक्षा और परवरिश दे सकूं।
'तिनका तिनका तिहाड़' के बारे में बात करते समय रमा ने बताया कि उसे लिखने -पढऩे के अलावा नई-नई चीजे सीखने का भी बहुत शोक है। अपनी किताब के विषय में रमा ने कहा कि जेल में आने के बाद बहुत अकेली पड़ गई थी ऐसे में अक्सर मन उदास ही रहता था बस अपने दर्द को हल्का करने के लिए मैं कुछ न कुछ लिखकर अपने मन को हल्का कर लेती थी। रमा को नहीं मालूम था कि जो भी कविताएं उसने अपनों की याद में लिखी थी वह कभी किसी किताब का रूप ले सकती हैं। रमा कहती है कि जेल का स्टाफ  बहुत अच्छा है और वहां सभी लोग हमें मानसिक रूप से काफी तसल्ली देते हैं उनके द्वारा दी गई हिम्मत का ही नतीजा है कि वहां मैं या कोई भी महिला सालों गुजार लेती है अगर वहां का स्टाफ अच्छा नहीं होता तो यकीनन जेल अपने नाम से भी ज्यादा भयानक हो जाती।
महिला दिवस पर मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि एक महिला को परिस्थितियों से घबराकर गलत रास्ते को नहीं अपनाना चाहिए।  बल्कि हर परिस्थति का जमकर सामना करना चाहिए।

सीमा रघुवंशी:-
जब मैं ग्रेजुएट पास सीमा से मिली तो मुझे एक पल को लगा कि यह वह सीमा नहीं है जिसका फोटो मैंने 'तिनका तिनका तिहाड़' किताब में देखा था क्योंकि फोटो वाली सीमा और वहां मौजूद सीमा में जमीन आसमान का फर्क है। दरअसल यह फर्क था बिंदी, चूड़ा, सिंदूर और एक नई नवेली दुल्हन की आंखों की चमक का । उसकी आंखों में वे सब सपने साफ-साफ देखने को मिले जो हर एक नई नवेली दुल्हन की आंखों में होते हैं। सीमा बहुत खुश मिजाम लड़की है लेकिन वह जितनी जल्दी खुश हो रही थी उतनी ही जल्दी उदास भी । उसेे जेल में पांच साल हो चुके हैं। लेकिन यहां से निकलने के बाद की चिंता अभी से उसे सता रही है। जेल से जाने के बाद समाज का रवैया उसके प्रति कैसा होगा, समाज उसके साथ क्या व्यवहार करेगा उसे अपनाएगा या नहीं। इन सभी सवालों ने उसे बहुत परेशान किया हुआ है। खैर जैसे-तैसे मैंने और वहां के स्टाफ ने उसे समझाया और मैं अपने मुख्य विषय यानी भविष्य को लेकर उसकी क्या  योजनाएं हैं पर आई।
सीमा ने बताया कि 'मैंने भी एक आम लड़की की तरह ही अपने भविष्य को लेकर बहुत से सुनहरे सपने देखे हुए थे जिन्हें मैं पूरा करना भी चाहती थी लेकिन समय और हालात ने मेरा साथ नहीं दिया और मुझे यहां इस जेल में आना पड़ा। लेकिन आज मैं जहां भी हूं मुझे उम्मीद है कि यहां से मैं जब भी बाहर जाऊंगी मैं अपने उन तमाम सपनों को जरूर पूरा करूंगी जो मैंने देखे थे। चूंकि जेल अपने आप में एक दुनिया है जिसमें आने के बाद शुरूआती दिनों में हमें अजीब लगता है और हम रोते-बिलखते हैं लेकिन कहते हैं न कि समय अच्छे-अच्छे जख्म भर देता है शायद ठीक ही कहते हैं क्योंकि समय ने मुझे भी यहां के माहौल में रहना सिखा दिया। अब भी मैं बाहर जाने के ख्वाब देखती हूं लेकिन अब मैं इंतजार कर रही हूं। जेल में हर तरह के लोग हैं यह आप पर निर्भर करता है कि आप उनके जैसा बनती हैं या उन्हें अपने जैसा बना लेती हैं। जब मैं यहां नई-नई आई थी तो सोचती थी कि बाहर जाने के बाद बदला लेना है और भी बहुत कुछ गलत करना है लेकिन यहां के स्टाफ और मेरे पति जो जेल नम्बर -8 में हैं उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया। यहां सभी ने मुझे समझाया कि गलत होने के कारण ही आज मैं अंदर हूं और अगर फिर से गलत हुआ तो मैं अपने आने वाले सुनहरे भविष्य को फिर से यहीं लाकर खड़ा कर दूंगी।  जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे मेरी सोच भी बदल गई और मैंने अपने आपको पूरी तरह से बदल लिया। अब मैं यहां के सभी नियमों का पालन करती हूं और बस बाहर आने का इंतजार करती हूं।
सीमा ने ग्रेजुएशन कर रखी है। और क्योंकि वह अपने आप को व्यस्त रखना चाहती है इसलिए इग्नू  से किसी अन्य विषय में फिर से ग्रेजुएशन कर रही है।  साथ ही महिला प्रतिरक्षा मंडल में बतौर अध्यापक पढ़ाती है। सीमा अपने साथियों में जो कम पढ़ी लिखी हैं और पढऩे की इच्छा रखती हैं उन्हें पढ़ाती है। वह हर समय अपने आपको किसी न किसी काम में व्यस्त रखना चाहती है ताकि उसे किसी प्रकार का कोई तनाव न हो और वह रात में अच्छे से सो सके।
सीमा कहती है कि जेल में होने वाली प्रत्येक गतिविधी में  मैं हमेशा हिस्सा लेती हूँ और ज्यादा से ज्यादा सीखने की कोशिश भी करती हूं। चूंकि हो सकता है कि बाहर निकलने के बाद समाज हमें ठुकरा दे तो यही सब काम हमारे काम आ सकेंगे। जो हमारे जीवनयापन में मदद कर सकें। इसलिए अब मैं यही सोचती हूं कि हम जब भी बाहर जाएंगे नए सिरे से एक नई जिंदगी की शुरूआत करेंगे।
सीमा ने बताया कि मैडम यहां का स्टाफ  सच में बहुत अच्छा है अगर गलती पर डाटता है तो अच्छे काम पर शाबासी भी देता है। और इन्हीं का सपोर्ट था जो हमारी किताब बाहर हमारी आवाज बन पाई है।
सीमा आगे जाकर समाज सेवा करना चाहती है और स्वयं सेवी संस्था खोलकर अनाथ बच्चों के लिए बहुत कुछ करना चाहती है। सीमा कहती है कि यहां जेल में आकर अक्सर लगता था कि मैं अनाथ हूं और मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है लेकिन जिस दिन मेरे घर से कोई मुझे मिलने आता है तो मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास फिर उठ खड़ा होता है। अपनों के होते हुए भी मैंने कई बार अपने आपको अनाथ महसूस किया है इसलिए मैं जब भी यहां से बाहर जाऊंगी तो अपने आपको इस लायक जरूर बनाउंगी कि सब नही तो कुछ अनाथ बच्चों के लिए मैं कुछ कर सकूं।
 किताब के विषय में पूछते ही वह बहुत खुश हुई और उसने सबसे पहले वर्तिका मैड़म का नाम लिया और कहा कि यह सब वर्तिका मैडम की वजह से ही हो पाया है वरना हमारी कविता हर शाम को जन्म लेती थी और सुबह होते होते मौन धारण कर लेती थी।
सीमा ने बताया कि ''मुझे बचपन से ही कविता पढऩा और लिखना बहुत पंसद है। मैं जब भी उदास होती हूं तो बस अपनी उदासी को शब्दों में पिरोने की कोशिश करती हूं। मैं कोई बहुत बड़ी कवित्री तो नहीं हूं बस मन में जो उस समय विचार आते हैं उन्हें बांधने की कोशिश करती हूं। कविता की किताब लिखना मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। वो तो सिर्फ कुछ विचार थे जिन्होंने कविता की शक्ल ली और वर्तिका मैडम और हमारी डीजी मैडम व अन्य पूरी टीम के प्रयास से हमारी कुछ चुनिंदा कविताओं को एक किताब का रूप मिला।
 सीमा कहती हैं कि कविता लिखकर मेरे मन को काफी शांति मिलती है इसलिए मैं रात के समय शांत वातावरण में अक्सर अपनी उदासी के कारण और अपने दर्द को शब्द देने में जुट जाती हूं।  जो बातें और प्रश्र मैं किसी से नहीं कर सकती वह मैं अपने इस लेखन के माध्यम से स्वयं अपने आप से करके ही खुश हो जाती हूं।
महिला दिवस के विषय में बोलते हुए सीमा ने कहा कि एक महिला में आत्मविश्वास का होना बहुत जरूरी है।

आरती:-
आरती शक्ल से ही काफी समझदार और सुलझी हुई महिला लग रही थी मेरे मन में काफी दिनों से यह सवाल थे कि आखिर इन सभी ने ऐसा क्या किया होगा और सोचा था कि मैं उनसे पूछूंगी जरूर लेकिन जैसे ही मेरे सामने आरती आई और उसने अपने आप ही अपने मन की बाते बताई तो मैंने यह निश्चय किया कि मैं इनसे ऐसा कुछ भी नहीं पूछूंगी जिससे इन्हें दुख हो आरती की बातों को बीच में ही रोकते हुए मैंने विषय बदला और अपने प्रश्नों की लिस्ट अपनी डायरी में बन्द करके रख दी।
मैंने आरती से उसकी पढ़ाई लिखाई के बारे में बात करनी शुरू की। और आरती को बोलने का मौका दिया:-
मैं ग्रेजुएट हूं और इगनू से होटल मैनेजमेंट का कोर्स कर रही हूं। मेरे पति जो अब इस दुनिया में नहीं है वे एक रेस्टोरेंट चलाते थे चूंकि यहां आने से पहले मैं एक हाउस वाइफ थी और मुझे खाना बनाना बहुत पसंद है इसलिए मेरी कुकिंग काफी अच्छी है। अपने इस हुनर का इस्तेमाल मैं एक रेस्टोरेंट खोलकर करना चाहती हूं। ताकि अपनी  बेटी की परवरिश अच्छे से कर पाऊं।
मैंने जेल में आकर बहुत सी चीजें सीखी हैं। मैंने यहां ब्यूटीशियन का कोर्स किया है। मुझे गाने का भी बहुत शौक है इसलिए मैंने तिहाड़ आईडल में हिस्सा लिया था और उसमें मैं प्रथम आई थी अपने आपको व्यस्त रखने के चलते मैं यहां होने वाले लगभग प्रत्येक कार्यक्रम में हिस्सा लेती हूं ताकि यहां पर ज्यादा से ज्यादा सीख सकूं। मैंने यहां आर्टीफिशियल ज्वैलरी डिजाइन का कोर्स भी किया है। मुझे कई बार ऐसा लगता है कि जैसे मैं किसी होस्टल में रह रही हूं, लगता ही नहीं कि मैं किसी जेल में हूं। एक हाउस वाईफ  होने के नाते बाहर जो मैं कभी नहीं सीख पाती मैंने यहां वह सब कुछ सीखा है। और यहां से इतनी सारी चीजे सीखने के बाद मैं बाहर की दुनिया में अपना और अपनी बेटी का ध्यान अच्छे से रख पाऊंगी।
आरती ने बताया कि जेल का स्टाफ  उन सभी कैदियों को बहुत सपोर्ट करता है जो यहां अनुशासन में रहते हैं। अगर हम डिसीप्लीन में रहते हैं और कोई भी काम यहां से आज्ञा  लेकर करते हैं तो हमें कभी कोई डाँट नहीं पड़ती लेकिन अगर हम अपनी मर्जी से कुछ भी गलत करते हैं तो हमकों डाँट भी पड़ती है। मेरे लिए यहां पर रहना एक सजा है लेकिन वह सजा सिर्फ इतनी है कि मैं अपनी बेटी से दूर हूँ । वरना मुझे यहां परिवार से भी ज्यादा प्यार मिला है।
बाहर की दुनिया के बारे में बात करते समय आरती बहुत उदास लगी। मैंने चारों से अगल अलग बात की थी लेकिन बाहर की दुनिया को लेकर चारों के उत्तर लगभग एक जैसे ही थे।
आरती ने कहा कि मुझे मालूम है कि जेल की सजा से ज्यादा सख्त और कड़ी सजा मुझे समाज से मिलेगी और मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार भी हूं। मैंने जो भी किया या नहीं किया उसकी सजा जब मैं जेल में रहकर काट रही हूं तो समाज कौन होता है मुझे फिर से सजा देने वाला। एक माँ अपनी बेटी से आंख नहीं मिला पाती क्या इससे बड़ी कोई सजा है, एक माँ जेल में रह रहे बच्चों को पढ़ाती है लेकिन उसे अपनी खुद की बच्ची की पढ़ाई की कोई खबर नहीं क्या इससे बड़ी कोई सजा है,  एक माँ अपनी ममता की बौछार को अपनी बेटी पर उडेल नहीं पाती क्या इससे बड़ी कोई सजा है, एक माँ अपनी बेटी को अपने हाथ से खाने का निवाला तक नहीं खिला पाती क्या इससे बड़ी कोई सजा है। मेरी बेटी बिना पिता की तो थी ही लेकिन
 मेरे यहां आने से बिन माँ की भी हो गई है क्या इससे बड़ी भी कोई सजा होती है, अगर है तो इतनी दर्द भरी सजा भुगतने के बाद मैं इतनी मजबूत हो चुकी हूं कि दुनिया की हर सजा कम ही लगेगी।
मेरी बेटी जब भी मुझसे मिलने यहां आती है तो उसकी आंखों में मेरे लिए कितने सवाल होते हैं यह सिर्फ मैं ही समझ सकती हूं। जब वह मेरे यहां रहने का कारण पूछती है तो मैं उसे यही कहती हूं कि मैं जेल में अनाथ बच्चों को पढ़ाती हूं इसलिए तुम्हारे पास नहीं आ पाती इस बात पर वह तुरन्त बोलती है कि मैं भी तो अनाथ हूं फिर आप मेरे बारे में क्यों नहीं सोचती। उसके इस सवाल का जवाब मैं की नहीं दे पाती। बाहर निकलने के बाद मेरा मकसद समाज से मेल-मिलाप बढ़ाना नहीं है बल्कि मेरे उन तमाम सालों का प्यार अपनी बेटी को देना है जिसकी वो हकदार थी लेकिन परिस्थितियों के चलते उसे नहीं मिल सका। मुझे अब बस अपनी बेटी के लिए जीना है। मैंने जेल में हर वह काम सीखा है जिससे मुझे बाहर जाने पर थोड़ी मदद मिल सके। मैं अपनी बेटी के हर उन सपनों को पूरा करना चाहती हूं जो उसकी आंखों में पल रहे हैं।
किताब के बारे में बताते हुए आरती ने बताया कि ' मुझे लिखने का बचपन से ही शौक था मैंने  अपनी पहली डायरी 5वी क्लास में लिखी थी।
जेल में आने के शुरूआती दिनों में यहां नींद नहीं आती थी इसलिए मैं नींद की गोली लेती थी लेकिन अब मेरी कविताएं ही मेरे लिए नींद की गोली का काम करती हैं। मुझे जब भी नींद नहीं आती तब मैं कविता लिखना शुरू कर देती हूं और जैसे ही मेरे मन की बात कागज पर आ जाती है तो मुझे नींद भी आने लगती है। मुझे जिस दिन पता चला कि हमारी किताब छपी है वह दिन मेरे लिए बहुत खुशी का दिन था और मुझे ईनाम के रूप में 5000 रूपये की राशि भी दी गई थी। इस किताब के लिए मैं हमारी विमला मेहरा मैडम और वर्तिका मैडम का बहुत-बहुत धन्यवाद करना चाहूंगी।
महिला दिवस पर मैं बस यही कहूंगी कि एक औरत चाहे तो कुछ भी कर सकती है उसके अन्दर इतनी शक्ति होती है कि वह सब कुछ बदल सकती है इसलिए उसे पहले अपने आपको पहचानना होगा और अपने आपको बदलना होगा तभी वह देश को बदल पाएगी।

रिया शर्मा:-
नई-नवेली दुल्हन रिया के सपने अभी पूरे होने शुरू ही हुए थे कि किसी की नजर उसके हंसते खेलते जीवन पर लग गई और रिया व उसका पति विक्रम हालात का शिकार हुए और दोनों को ही जेल में आना पड़ा। रिया को महिला कारागार संख्या -6 और उसके पति को कारागार संख्या -3 में रखा गया। रिया बताती हैं कि ' मैं  ग्रेजुएट हूं और यहां आने से पहले ही मेरी शादी हुई थी। शादी को लेकर हर लड़की की तरह मेरे भी बहुत से ख्याब थे जिन्हें मैं पूरा करना चाहती थी। मेरी शादी तो हो गई लेकिन मेरी गृहस्थी बसने से पहले ही उजड़ गई थी। नई-नई शादी के तुरंत बाद अपने बसते घरोंदे को खुद अपनी आंखों से बिखरते देखा है।
मुझे जेल में आए हुए लगभग 6 साल होने वाले हैं लेकिन शुरू से लेकर आज तक मेरे मन में अपनी गृहस्थी को फिर से संवारने की बात हमेशा बनी रहती है। शुरूआत में यहां आकर रहना मेरे लिए किसी मौत से कम नहीं था। मैं इतनी कमजोर पड़ चुकी थी कि यहां जरा जरा सी बात पर रोने लगती थी, दिन-रात अपने परिवार और अपने पति को याद करके रोया करती थी। मैं अन्दर तक टूट चुकी थी लेकिन कहते हैं न कि समय सबसे बड़ा मरहम होता है। समय ने ही मुझे यहां रहने की ताकत दी और एक कमजोर लड़की जो एक छोटी सी बात पर भी रो पड़ती थी आज हर परिस्थिति का डट कर मुकाबला करना सीख चुकी है। आज मैं किसी की नहीं सुनती, अगर मेरी गलती है तो मैं अपनी गलती मानने से पीछे नहीं हटती लेकिन अगर मेरी गलती नहीं है तो मैं झूंठ के आगे कभी नहीं झुकती बल्कि उसका सामना करती हूं। मुझे परिस्थितियों ने इतना मजबूत बना दिया है कि शायद यहां से बाहर जाने के बाद भी मैं अपने आपको इसी तरह पेश कर पाऊं। 
मैंने जेल में ब्यूटी पार्लर और आर्ट ऑफ लीविंग का कोर्स किया है। इसके अलावा मैं जेल में होने वाले लगभग सभी सांस्कृतिक कार्यक्रम और कुछ  प्रतियोगिताएं जैसे फेशन शौ इत्यादि सभी में भाग लेती हूं। ताकि अपने आपको व्यस्त रखने के अलावा मैं यहां से ज्यादा से ज्यादा सीख सकूं। यहां हमें अपने आपको ज्यादा समय देने का मौका मिलता है जिससे कहीं न कहीं हमारा विकास होता है जो कई मायनों में यहां से बाहर जाने के बाद हमें मदद करता है।
6 साल पुरानी रिया आज बदल चुकी है। शादी के शुरूआती 6 साल जेल में अपने पति से अलग रहकर बिताने के बाद अब मैं अंदर से काफी मजबूत हो चुकी हूं। मैं और मेरे पति शनिवार के शनिवार जब भी मिलते हैं तब हम अपने जीवन को आगे कैसे जीना है बस इस बारे में सोचते हैं।  हम दोनों ही एक दूसरे को यहां रहने के लिए हिम्मत देते हैं।  अब जो भी हो मैंने जो समय यहां गँवा दिया है मैं उसे वापिस तो नहीं ला सकती लेकिन यहां से बाहर जाकर समाज क्या कह रहा है इस बात को लेकर मैं अपना वह समय खराब नहीं करूंगी।  यहां आना एक सबसे बुरी बात मानी जाती है इसलिए यहां से जाने के बाद इससे ज्यादा और बुरा भला क्या हो सकता है।  अब मैं कमजोर नहीं हूं और समाज का सामना करने को भी तैयार हूं। मैं यही मानती हूं कि एक औरत को क भी भी कमजोर नहीं पढऩा चाहिए क्योंकि आज की औरत एक लाचार अबला नहीं है बल्कि वह एक दुर्गा शक्ति बन चुकी है।
रिया बताती है कि मैडम यहां हम जितनी भी महिलाएं हैं हम सभी यहां आने के समय मानसिक रूप से बहुत कमजोर होती हैं लेकिन यहां आने के बाद हमें इतनी सारी अच्छी बातें सिखाई जाती हैं और यहां का स्टाफ हमें इतना सहयोग करता है कि हमारे अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होता है। आत्मविश्वास इस बात का कि हमने जो भी किया या नहीं किया उसकी सजा हमें मिल रही है तो क्या न इस सजा से हम इतना सीख लें कि जीवन भर कभी किसी सजा का सामना न करना पड़े। अगर यहां का स्टाफ हमारा साथ न दे तो यकीनन यह सजा काटना हमारे लिए किसी सजा से कम नहीं होता।
मुझे यहां से बाहर जाने के बाद सबसे पहले अपने परिवार को समय देना है और अपनी गृहस्थी को आगे बढ़ाना है। समाज क्या कहेगा या क्या सोचेगा मुझे इस बात को लेकर कभी-कभी चिंता तो होती है लेकिन जब मैं यह सोचती हूं कि मेरे दोनों परिवार मेरे साथ हैं तो मेरी यह चिंता खत्म हो जाती है। समाज से मुझे क्या लेना -देना।
जब कानून ने मुझे इतने साल मेरे अपनों से दूर करके मुझे सजा दे दी है तो मैं समाज से मिलने वाली सजा का इंतजार क्यों करूं। जब जीवन की इतनी बड़ी चुनौती का सामना करने की हिम्मत मुझमें आ गई है तो समाज को भी देख लेंगे।
किताब के विषय में बताते हुए रिया ने कहा कि मैड़म जब मैं यहां आई थी तो बस यह लगता था कि मैं यहां कैसे रहूंगी तभी मैंने अपनी कलम और कागज को अपना दोस्त बना लिया और उनके सहारे ही इतने साल बिता लिए। मन में जो भी पीड़ा या दर्द होता था उसे अपने इन दोनों दोस्तों यानि कलम के सहारे कागज से बांट लेती थी और मन हल्का हो जाता था। शुरूआत की इस पहल ने कब आदत को जन्म दे दिया पता ही नहीं चला । आज लिखना एक आदत सी बन गई है। वैसे मेरा मानना यह भी है कि कविता दर्द से ही जन्म लेती है और जेल से ज्यादा दर्द कहीं नहीं है। अपनों से दूरी एक आम इंसान को भी कवि बना देती है। हमारे अंदर के दर्द को वर्तिका मैडम ने और डी.जी. मैडम विमला मेहरा जी ने समझा और दर्द से सिसकती हमारी कविताओं को एक किताब का रूप दिया जिससे कहीं न कहीं हमें एक अलग पहचान मिली है।
महिला दिवस पर मैं सिर्फ इतना कहना चाहती हूं कि एक औरत को हर हालात से सामना करने के लिए हमेशा मजबूत रहना चाहिए।। वह एक औरत ही है जो हर परिस्थिति का सामना हंसते-हंसते कर सकती है।

Friday, 22 March 2013

Monday, 25 February 2013

क्या हम मनाएं महिला दिवस?


गौड़सन्स टाइम्स के मार्च पहले अंक की प्लानिंग कर रही थी कि इस अंक में क्या-क्या जाना चाहिए। हमारे संपादक महोदय से एक दिन पहले ही इस विषय पर मीटिंग हो चुकी थी उन्होंने भी कहा  कि इस बार का अंक पहले से भी अच्छा निकलना चाहिए। मैं सर के कमरे से निकलकर पूरे दिन और यहां तक की रात भर यही सोचती रही  कि  इस अंक को और अच्छा कैसे बनाया जाए, सर ने कहा था कि मार्च में महिला दिवस आता है उस पर भी अच्छा मैटर जाना चाहिए। मैं इसी सोच में पड़ी थी कि कैसे और क्या करूं  कि  इस अंक को बेहतर और प्रशंसनीय निकाल सकूं। रात भर सोचने के बाद भी कुछ न सोच सकी। सुबह आफिस आकर फिर से सोचने लगी कि क्या करूं फिर अचानक से मन किया कि क्यों न महिला दिवस पर ही मैं कुछ अच्छे लेख और परिचर्चाएं एकत्र करू। बस जैसे ही लिखने बैठी कि मन ने अन्दर से झकझोर दिया कि कैसा महिला दिवस? कैसा होता है ये महिला दिवस? क्या हम उस मुकाम को हासिल कर चुके हैं जो एक महिला को करना चाहिए? क्या हमें हमारी मंजिल मिल चुकी है? फिर क्यों मनाते हैं हम यह महिला दिवस? क्या महिला वर्ग मात्र कुछ सफल महिलाओं में समाप्त हो जाता है? हम स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं क्योंकि हमारा देश स्वतंत्र है लेकिन हम महिलाओं को तो आज भी सही मायने में स्वतंत्रता दिवस मनाने का कोई हक नहीं अभी कहां हुई हैं हम स्वतंत्र। क्या केवल अंग्रेजो से स्वतंत्रता मिलने से ही हम महिलाएं स्वतंत्र हो चुकी हैं। अंग्रेज गए लेकिन हमारे अपने ही समाज के लोगों ने महिलाओं को आज भी कैद किया हुआ है। पहले अंग्रेज भारतीय महिलाओं  की इज्जत को कुचलने में अपनी शान समझते थे लेकिन आज तो हम महिलाएं अपने ही देश यानी अपने ही घरों में महफूज नहीं है। कहते हैं लोग अपने घरों में शेर होते हैं लेकिन हम महिलाएं अपने खुद के घर में डर-डर के रहती हैं। कब किसके साथ क्या हो जाए किसी को इस बात का अंदेशा तक नहीं होता। जहां पुरूष घर से बाहर जाते समय एक बार भी घड़ी की सूई पर नजर नहीं मारता वहीं एक महिला को घर से निकलने से लेकर घर पहुंचने तक अपनी नजर हर वक्त घड़ी की उस सुई पर रखनी पड़ती है। कहीं देर न हो जाए , कहीं ज्यादा अंधेरा न हो जाए , अगर ज्यादा देर हो जाएगी तो पड़ोसी क्या कहेंगे, घरवाले क्या कहेंगे। देखा जाए तो एक महिला खुद अपने से ही रोज लड़ती है सही सलामत घर पहुंचने की जद्दोजहत में एक लड़की कई बार कुछ ऐसे गलत कदम उठा देती है जो उसके लिए और भी मुश्किले पैदा कर देते हैं।  जैसे घर समय पर पहुंचने की जल्दी में किसी भी गलत आॅटों या गलत मार्ग से जाना। बस ये ही नहीं और भी कई ऐसी बाते हैं जो महिलाओं को महिला दिवस मनाने की इजाजत नहीं देती कम से कम अभी तो बिल्कुल भी नहीं। जिस दिन हमारे समाज में हर एक महिला अपने आप को महफूज समझने लगे वहीं दिन हमारे लिए कायदे से महिला दिवस होगा।

Friday, 4 February 2011

एक लड़की की कहानी- एपिसोड -10

माँ ने दूध का गिलास मुह से लगाया था की दादी हॉस्पिटल की बातें करने लगी, एक पल के लिए तो मैं और माँ दोनों ही डर गए थे लेकिन जैसे ही दादी ने कहा की तू इतनी कमजोर है की डाक्टर साहब ने तेरा वह वाला टेस्ट ही नहीं किया जीसस यह पता चलता है की तेरे पेट में लड़का है या लड़की, यह सुनकर हम लोगो की जान में जान आई। माँ सोचने लगी की आखिर यह बात मैं कब तक छुपा कर रख सकती हूँ सच्चाई तो सामने आनी ही इसलिए क्यों न सचाई को धीरे धीरे माता जी के सामने लाया जाय। हलाकि माँ पूरी तरह से यह नहीं जानती थी की उनके पेट में लड़की ही है, लेकिन पता नहीं कैसे उन्हें मेरे होने का अहसास था। सो वह डरती थी की अगर सच में लड़की ही हुई तो क्या होगा, इसलिए वह चाहती थी की माता जी को यह बताना बहुत जरुरी है की कुछ भी हो सकता है, माँ ने धीरे से कहा की माताजी मैं भी चाहती हूँ की मेरे पेट में आपके खानदान का वारिस ही जन्म ले , लेकिन अगर लड़की हुई तो? यह सुनकर माता जी ने माँ को जोर से डाटते हुए कहा की तू पागल तो नहीं है कैसे लड़की होगी, हमारे खानदान में हर बहु के पहला बच्चा लड़का ही हुआ है तो फिर बरसो से चली आ रही यह परंपरा कैसे बदल सकती है, इसलिए तू ऐसा अशुभ बोलना तो दूर की बात सोचना भी नहीं। दादी के बात सुन कर तो माँ सन्न रह गयी, उसे समझ ही नहीं आ रहा था की आखिर कैसे दादी को समझे की लड़का या लड़की पैदा करना माँ के हाथ में नहीं होता, डरते हुए फिर बोली माता जी वैसे लड़का या लड़की पैदा करना किसके हाथ में होता है, दादी ने कहा की अगर बहु घर की लक्ष्मी होती है और उसमे अच्छे संस्कार होते है तो उससे लड़का ही होता है और अगर उसने को पाप किया होता है तो उस पाप का फल के रूप में ही लड़की जन्म लेती है, तुने सुना नहीं है जब किसी के लड़की होती है तो सब यह ही कहते है की पता नहीं क्या पाप किया था जो घर में लड़की ने जन्म लिया, माँ ने धीमे आवाज में कहा की माँ लड़की को तो साक्षात् लक्ष्मी और देवी का रूप मानते है, अगर घर में लड़की आ जाय तो कहते है की घर में लड़की आ गयी, दादी ने कहा की लक्ष्मी बहुए होती है बेटी तो पराया धन होती है, इसलिए जब पराया है तो कहा अपना रहा इसलिए तुझे नहीं मालुम की बेटी होने पर पूरी बिरादरी में सर झुक जाता है उप्पर से बेटी कोई उच्च नीच कर बैठे तो समझो समाज में मुंह तक दिखाना मुश्किल हो जाता है , माँ ने कहा की माता जी उच्च नीच तो लड़के से भी हो सकती है, तो दादी झुन्झुलाते हुए बोली की लड़के के सो जुर्म भी माफ़ होते है और वैसे भी लडको को बच्चा नहीं ठहरता , बच्चा तो लड़की यह ठहरता है इसलिए अब तू ऐसे समय पर यह फ़ालतू की बातें मत सोच , तू सिर्फ आराम कर बस। यह बोलकर दादी कमरे से बाहर चली गयी और माँ फिर से बिस्तर पर लेट गयी, माँ का शरीर तो आराम कर रहा था लेकिन माँ का मन और दिमाग अभी भी इसी उलझन में था की आगे न जाने क्या होने वाला है, माँ बस चुप चाप पडी हुई थी, माँ को इतना परेशान देख कर मैं भी बहुत परेशान थी, माँ की मदद करना चाहती थी लेकिन कुछ कर नहीं पा रही थी, ....शेष अगले एपीसोड़े में

Saturday, 25 September 2010

एक लड़की की कहानी एपिसोड- 9

माँ यह सोच ही रही थी की कही माता जी ने मेरा चेकअप तो नहीं करा दिया इतने में हम घर पहुच गए और दादी ने रिक्शेवाले से कहा की भैया रिक्शा जरा दरवाजे पर लगा दे ताकि मेरी बहु आसानी से उतर सके, दादी के मन में माँ के लिए इतनी चिंता और प्यार देख कर लगता तो बहुत अच्छा था लेकिन यह सोच कर दुःख भी लगता था की सच का पता चलने पर दादी माँ के साथ न जाने कैसा बर्ताव करेगी, दादी ने माँ को रिक्शे से उतरने में मदद की और घर के भीतर ले जा कर माँ को उनके पलंग पर लिटा आई, और तब बाहर जाकर रिक्शेवाले को पैसे दिए, और रिक्शेवाले को सफाई देते हुए कहा की भैया जरा माफ़ करना तुम्हे इन्तजार करना पड़ा वो जरा बहु को इतनी देर खड़ी रखकर तुम्हे पैसे देती तो कही वो दुबारा बेहोश न हो जाती, बहुत कम्जूर हो गयी है न इसलिए। रिक्शेवाले ने बड़ी उदारता से कहा कोई बात नहीं माताजी, माँ को होश आ चुका था लेकिन माँ जान बुझ कर अपनी आँखों को बंद किये लेटी थी की कही चेकअप में असलियत न आ गयी हो, लेकिन माँ को क्या पता की माँ का चेकअप हुआ ही नहीं, दादी माँ से कुछ बात करती की देखा की बहु की आँखे बंद है लगता है आराम कर रही है सो बिना जगाय ही अपने कमरे में चली गयी। दादी के कमरे से बाहर जाते ही माँ ने धीरे धीरे अपनी आँखे खोली और भगवान् से बात करने लगी, "हे भगवान् यह तुने क्या किया, मैं जिस बात को छुपा रही थी आज वह बात माताजी के सामने इस तरह से सामने आ गयी, उन्हें कितनी तकलीफ हुई होगी, अब मैं क्या करू? " फिर अचानक माँ ने सोचा की अगर माताजी ने चेकअप करवाया होता तो माता जी कुछ तो कहती लेकिन उन्होंने अभी तक कुछ भी क्यों नहीं कहा? कही वह बहुत ज्यादा गुस्से में तो नहीं है? कही शाम को अपने बेटे के सामने तो सारी बात नहीं करना चाहती? माँ यह सोचती रही और अन्दर ही अन्दर रात को होने वाले कलेश की पूर्व कल्पना करती रही, और भगवान् से कामना करती रही की भगवान् सब आपके ही हाथ में है, कृपा सब ठीक रखना। देखते ही देखते आँगन से धुप सिमटी गयी और संध्या बिखरती जा रही थी, दादी को लगा की दोपहर से बिना कुछ खाय पिए मेरी बहु ऐसे ही पड़ी हुई है चलूं देखूं उसकी तबियत कैसी है? दादी माँ के पास आई और सिराहने बैठ गयी और माथे पर हाथ फेरते हुए बोली अब कैसे तबियत है तेरी? माँ ने धीरे से कहा अब ठीक है माताजी । दादी ने कहा की बेटी अब तू बस आराम कर और सब भूल जा तू बहुत कमजोर हो गयी है इसीलिए बार बार चक्कर आ रहा है। तू बता की तेरे लिए कुछ खाने को बना लाऊ? तुने दोपहर से कुछ नहीं खाया, माँ ने कहा की नहीं माँ अभी कुछ खाने का मन नहीं कर रहा, दादी ने कहा की मैं जानती हूँ की ऐसे में कुछ भी खाने पिने को मन नहीं करता लेकिन फिर भी मन मार कर खाना ही पड़ता है । तू अपने साथ साथ होने वाले बच्चे को भूखा क्यों मार रही है? इसलिए तू आराम कर मैं कुछ लाती हूँ, यह बोल कर दादी रसोई में गयी और माँ के लिए दूध और साथ में कुछ बिस्कुट ले आई और माँ को कहा की अब तू बिना मुह बनाय इसे ख़तम कर। माँ ने हाथ में जैसे ही गिलास लिया इतने में दादी के मुह से एक ऐसी बात निकली जिसे सुनकर मेरी और माँ दोनों की धड़कन ही रुक गयी....शेष अगले अंक में....

Monday, 7 June 2010

एक लड़की की कहानी एपिसोड- 8

दादी ने कहा की मैं सोच रही हूँ की क्यों न तू भी जांच करा ले? दादी के बस यह कहने की देर थी की माँ की दिल की धड़कन पहले से और ज्यादा तेज धड़कने लगी और माँ बेहोश हो गयी। माँ के बेहोश होते ही दादी भाग कर साथ के कमरे में बैठे डॉक्टर को अपने साथ बुला लाइ, डॉक्टर साहब ने अपने आला लगाया और एक दम बोले की क्या हुआ आपकी बहु की दिल की धड़कन तो बहुत ज्यादा तेज है, क्या आप इन्हें पैदल लाइ है? क्या यह अभी अभी सीडीयाँ चढ़ कर आई है? दादी ने कहा नहीं डॉक्टर साहब न तो मैं इससे पैदल लाइ हूँ और न ही यह अभी अभी सीडीयाँ चढ़ कर आई है, बल्कि हम तो यंहा पिछले २ घंटे से लाइन में बैठे है, डॉक्टर बोला की फिर क्या आपने अपने बहु को डाटा है? मानो या मानो आपकी बहु दिमागी तोर पर बहुत परेशान है जिस वजह से इससे यह चक्कर आया, डॉक्टर के ऐसा कहने पर दादी तुरंत बोली हा डॉक्टर साहब यह आज घर पर भी बेहोश हो गयी थी इसीलिए मैं इससे आज यंहा लाइ हूँ, और रही बात चिंता की तोह मेरी तरफ से मेरी बहु को कोई चिंता नहीं हो सकती , मैं तो इससे अपनी बेटी की तरह मानती हूँ, इसका इतना ध्यान रखती हूँ, जब से मुझे पता चला है की मेरी बहु मेरे घर को चिराग देने वाली है, हमारे खानदान का नाम चलाने वाला आना वाला है तब से तो मैं इससे कुछ काम भी करने नहीं देती, दादी के यह सब बोलने से डॉक्टर शायद माँ की चिंता का कारन समाग गया और दादी से बोला की माता जी आपको कैसे पता की आपकी बहु आपको पोता ही देने वाली है? क्या आपने कही चेक अप करवाया है? दादी ने कहा वैसे तो हमारा खानदान में बरसो से यह परंपरा ही चली आई है की हमारा यंहा हर बहु की पहली बार बेटा ही पैदा हुआ है, इसलिए मुझे पूरा भरोसा है की मेरी बहु यह परंपरा नहीं तोड़ेगी, दुसरे आज मैं इसका चेक अप भी करवाने की सोच रही थी लेकिन जैसे ही मैंने इससे चेकअप करवाने के लिया पुचा वैसे ही यह बेहोश हो गयी। डॉक्टर को यकीन हो गया की जो वोह सोच रहा था वही बात है, इसलिए डॉक्टर ने दादी को समझाया की देखिये माताजी आपकी बहु बहुत ज्यादा कमजोर है इसलिए यह बार बार बेहोश हो जाती है और अगर में ऐसे में आप चेकअप भी करवाती है और चेकअप में कोई गड़बड़ हो जाती है तो उससे होने वाले बच्चे को नुक्सान हो सकता है, इसलिए बेहतर होगा की आप इससे घर ले जाए और पूरा पूरा आराम करने दें, मैं कुछ ताकत की दवाई और सीरफ लिख देता हूँ, आप उन्हें पिलाई और अपनी बहु का ध्यान रखिये, दादी ने कहा की हा हा आप बिलकुल ठीक कह रहे है मैं भी किस पागल ओरत की बातो में आ गयी और चेकअप करने के बारे में सोचने लगी, हमे तो चेकअप करवाने की जरुरत ही नहीं हमारी तो परंपरा में ही लड़का है तो हम क्यों इन मशीनों पर भरोसा करे, दादी ने डॉक्टर साहब से दवाइयों का परचा लिया और माँ को घर ले आई, रास्ते में बहार की ताज़ी हवा लगने से माँ होश में तो आ गयी लेकिन दादी से बोली नहीं और अन्दर ही अन्दर सोचने लगी की लगता है माता जी ने मेरा चेकअप करा ही दिया, (शेष अगले एपिसोड में )

Wednesday, 24 March 2010

एक लड़की की कहानी एपिसोड (7)

मुझे और माँ को लगा की कही दादी माँ की भी इस तरह का कोई टेस्ट न करने को कहे? जैसे जैसे हमारा नंबर आ रहा था वैसे वैसे माँ और मेरी हालत डर के मारे खराब हो रही थी, दादी ने उस ओरतसे पूछा की अच्छा यंहा डॉक्टर यह भी बता देंगे की garbhvati महिला के पेट में लड़का है या लड़की? उस ओरत ने बड़ी ही उत्तेजित आवाज में कहा हाँ-हाँ बिलकुल, क्या तुम भी अपनी बहु का यह ही पता कराने आई हो? दादी ने कहा नहीं, यह गिर गयी थी सो मैंने सोचा की एक बार डॉक्टर साहब को दिखा लूँ की सब कुछ ठीक तो है कहीं बच्चे को कोई चोट तो नहीं आई, यही दिखाने आई हूँ। उस ओरत ने बड़ी ही ठंडी आवाज में उत्तर दिया अच्छा, मुझे लगा की आप भी लड़का या लड़की की जांच करवाने है, लगता है आपने पहले कही से जांच करा ली होगी, और जांच में लड़का ही बताया होगा, तभी आपको इतनी चिंता हो रही है, उस टाइम मेरी दादी ने थोडा समझदारी भरा जवाब दिया की अरे बहन क्या बात कर रही हो, लड़का हो या लड़की अगर बहु गिर जायेगी तो चिंता तो होगी न, वैसे अभी मैंने अपनी बहु की कही भी जांच नहीं काराई। और ओरत ने कहा की अरे जब आई हो तो यह काम भी करा ही लो दोनों काम एक साथ हो जायेंगे, अगर लड़का होगा तो यंहा से खुशु बटोरती हुई जाना और हाँ मुझे भी मिठाई खिलाना और अगर लड़की हुई तो यही पर रफा दफा करना, मैं भी यही सोच कर अपनी बेटी को लाइ हूँ, क्यूंकि अगर लड़की हुई तो मेरी बेटी की जेठानी उसे ताने मारेगी और सास भी मेरी बेटी से ज्यादा उसकी जेठानी को प्यार करेगी क्यूंकि उसके बेटा है। इसलिए मैं नहीं चाहती की कोई मेरी बेटी को ताने मरे, इतने में मेरी दादी ने कहा की क्या तुमने इसके ससुराल वालो से इस बात की इज्जाजत ले ली है? उस ओरत ने कहा की नहीं उन्हें नहीं पता, मेरी बेटी ने डर के मारे अभी अपने ससुराल में किसी को नहीं बताया सिर्फ अपने पति और मुझे ही बताया है, और मेरे दामाद भी यही चाहते है की उनकी पत्नी यानि मेरी बेटी को ससुराल में कोई ताने ने मारे इसलिए जांच में अगर लड़की है तो उसे यही रफा दफा कर देंगे और अगर लड़का है तो मेरी बेटी अपनी ससुराल में बता देगी और अपनी सास की मन की होकर रहेगी, उस ओरत और दादी की यह सारी बातें सुनकर मेरी और माँ की जान जा रही थी। दादी उस ओरत से कुछ और भी पूछना चाहती थी की इतने में उस ओरत का नंबर आ गया और वो अन्दर डॉक्टर के पास अपनी बेटी को लेकर चली गयी, दादी अभी शांत बैठी थी और दादी की इस शांति का मतलब मैं न जाने क्या क्या निकल रही थी, मुझे लग रहा था की शायद दादी माँ की भी जांच कराने को न कह दे? माँ ने डरते हुए दादी से पूछा की माताजी क्या हुआ आप क्या सोच रही है? दादी ने कहा की मैं सोच रही हूँ की..........................